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Cock Fight । मुर्गा लड़ाई

Nisha Yadav, bastar villager
Nisha Yadav
Researcher। bastarvillager.com

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मुर्गा हाट । मुर्गा लड़ाई । cock fight

मुर्गा लड़ाई (cock fight ) छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश, झारखंड, तमिलनाडु और केरल राज्यों में आम है। यह दो मुर्गों के बीच की लड़ाई है जो लड़ने के लिए नस्ल और प्रशिक्षित हैं। प्रतिद्वंद्वी को चोट पहुंचाने के लिए अक्सर उनके अंगों में एक ब्लेड या चाकू बांधा जाता है। जाहिर है, इस खेल का अभ्यास सिंधु घाटी सभ्यता के दौरान किया जाता था और प्राचीन काल में भारत, चीन, फारस, अन्य पूर्वी देशों और प्राचीन ग्रीस में लोकप्रिय था। सुप्रीम कोर्ट ने इस खेल को पशु क्रूरता निवारण अधिनियम का उल्लंघन बताते हुए प्रतिबंधित कर दिया। हालांकि कोर्ट के आदेश के बावजूद खेल अभी भी आयोजित किए जा रहे हैं।

बस्तर के इस घने जंगलों में ये खेल अब भी देखने को मिलता है इस खून के खेल में, जीतने वाले मुर्गा को एक और दिन लड़ना पड़ता है, और हारने वाले मुर्गे को रात के खाने के लिए परोसा जाता है.मुर्गा लड़ाई (cock fight ) बस्तर वासियों के लिए न केवल मनोरंजन का साधन है बल्कि इस खेल से कई लोगो का घर भी चलता है .बचेली के रहने वाले नम्मु मुर्गो को लड़ाई के लिए तैयार करते है .

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बस्तर हाट में मुर्गा लड़ाई

इनके तैयार किये हुए मुर्गे लगभग 1500 से पच्चास हजार तक बिकते है .अगर हम दुनिया भर में देखे तो कुछ देश सामान्य रूप से धार्मिक या सांस्कृतिक कारणों से क्षेत्रों में मुर्गों की लड़ाई की अनुमति देते हैं।

इंडोनेशिया में, केवल मुर्गों की लड़ाई की अनुमति बालिनी हिंदू धर्म के संबंध में की जाती है वही स्पेन में, सांस्कृतिक कारणों से कैनरी द्वीप और अंडालूसिया में इसकी अनुमति है ।
यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि यह एक मिलियन-डॉलर का उद्योग है।

आज भी बस्तर संभाग के कई जिलो में मुर्गा लड़ाई आयोजित की जाती है मुर्गा लड़ाई पूरे भारत मै  हजारो सालो तक प्रचलित था लेकिन अब मात्र जनजातीय बहुल जैसे बस्तर मै  मुर्गा लड़ाई देखने को मिलती है. मुर्गा लढाई  मनोरंजन के साथ साथ आय कमाने का जरिया भी है.

बस्तर में ऐसी होती है मुर्गा लड़ाई । cock fight of Bastar

देशभर में लड़ाकू मुर्गा के नाम से चर्चित असील प्रजाति के मुर्गे की 12 उप प्रजातियां बस्तर में हैं, इसलिए देश का एकमात्र असील संवर्धन केंद्र 1980 के दशक में छत्तीसगढ़ के जगदलपुर कुक्कुट पालन केंद्र में स्थापित किया गया था.

बस्तर का मुर्गा लढाई (cock fight ) से कौन परिचित नहीं परिचित होगा . यह जनजाति समाज में परंपरागत मनोरंजन के तौर पर मुर्गा लड़ाई सदियो से प्रचलित है.बस्तरवासी स्थनीय भाषा में मुर्गे की लड़ाई को कुकड़ा गाली कहते है. ये कोई साधारण मुर्गे की लहाई नही होती मुर्गे की प्रजाति असल बेहद लढ़ाकू गुसैल एवम आक्रामक होती है.

आदिवासियो की संस्कृतियों से देखा जाता है मुर्गा लड़ाई का कोई खास सीज़न नही होता मुर्गा लढाई का खेल धान कटाई के बाद ज़ोर पकड़ता है पहले मुर्गा लढाई मनोरंजन ओर हार जीत के लिए खेला जाता था लेकिन अब मुर्गा लढाई मै सट्टे लगाया जाता है सट्टे लगाने के लिए लोग दूसरे शहर से आते है.

 cock fight
cock fight । PC Manoj Sharma

बस्तर के स्थानीय और साप्ताहिक रूप से लगने वाले हाटयानि बाजार में मुर्गा लड़ाई देखने को मिल ही जाता है . वैसे बस्तर के जात्रा में भी इसका आयोजन होता है ,खास बात ये है की मुर्गे देशी से लेकर विदेशी मुर्गे यहाँ लड़ते हुए देखा जा सकता है .

वही मुर्गो की लड़ाई लगभग पांच मिनट की होती है और उसमे लोग दाव लगाते है .यहाँ रोज करोडों दाव पेज खेला जाता है .मुर्गो के पैर में खास किस्म की चाकू को बांधा जाता है .और उसमे जहर भी लगा होता है .हारनेवाले मुर्गे थाल में परोसा जाता है वही जितने वाले मुर्गे पर दाव लगते रहते है .

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मुर्गा लड़ाई के लिए ऐसे किया जाता है तैयार । The cock is ready for fight like this
  • आमतौर पर मुर्गा तैयार करने के लिए स्थानीय मुर्गे का चयन किया जाता है .
  • मुर्गो को ताकत वर बनाने के लिए उसे पोस्टिक खाना के साथ साथ मास भी खिलाया जाता है.
  • मुर्गो को खूंखार बनाने के लिए मुर्गो को कही दिनो से मुर्गे को अंधेरे मै रखा जाता है ताकि मुर्गा खूंखार और लढ़ाकू हो जाए.
  • कुछ लोग मुर्गे को खूंखार बनाने के लिए सुबह के वक्त मुर्गे को ठंडे पानि से नहलाते है.
  • मुर्गे को भीड़ के बीच रहने की आदत लग सके इसलिए मुर्गे को कही बाजार बाजार घूमाते है. 
  • कही बार मुर्गा लड़ते लड़ते घायल हो जाता है लेकिन मुर्गा मैदान छोड़ता नही या हारता नही है.    
एक मुर्गा लाखो कमाता है । A cock earns millions.

               बस्तर के साप्ताहिक रूप से लगने वाले हाट में दस रूपये से लेकर लाख तक दाव लगाये जाते है .वही जिन मुर्गो पर कम बोली लगती है वो बाड़े के बाहर कटीले बबूल या तार से घिरे होते है . मुर्गा के अखाड़े मे दांव आजमाने वाले लोगों के अपने नियम होते हैं। जो मुर्गों के संघर्ष मे अधिक दांव लगाता है, उसे मुर्गा अखाड़ा मैदान मे ही विशेष जगह दी जाती है।

तार एक गोलाकार बाड़ी में घिरा होता है .और बाड़े के अन्दर सिर्फ मुर्गा लड़ाने वाले को जाने की इजाज़त होती है .और मैदान में सिर्फ आपको पैसे और दाव के शोर कानो में सुनाई पड़ती है .मुर्गा एक धार धार चाकू बांधेमैदान में उतरता है और उस चाकू जहर भरे चाकू से दुसरे मुर्गे पर वार करता है .

cock fight
cock fight । PC Manoj Sharma

इस लड़ाई में मुर्गे उड़ कर भी लड़ते है और अपने पंजे का इस्तेमाल करते हुए एक दुसरे को मात देते है .इस लड़ाई के दौरान वहां मौजूद लोग अपने पसंदिता मुर्गे पर पैसे लगाते है .और जीत जाने पर पैसे दुगुने करते है वही हारने पर पुरे पैसे गवा भी बैठते है .

इस मुर्गे की लड़ाई में एक बात तो तय है की दो मुर्गो में जिसकी हार होगी वो थाल में परोसा जायेगा और जितने वाले मुर्गे की शान बढ़ जाती है जिससे उसके पर लगने वाले दाव याने पैसे बढ़ जाते है इस तरह एक मुर्गा लाखो से भी ज्यादा कमाता है .

घर परिवार 

           गावों के लोग खेती बाड़ी के साथ साथ मुर्गा बाजार पर भी निर्भर रहते है गावों के लोग मुर्गा बाजार को मुर्गा हाट कहते है गावों के लोग मुर्गा लड़ाई (cock fight ) मै पैसे लगाते है ओर अपना घर परिवार चलाते है मुर्गा बाजार के आसपास एक छोटा बाजार लगता है जहा गावों वाले छोटी  छोटी दुकाने लगाते है जिसे  हुआ  के गावों वाले पैसे कमाते है ओर अपना  जीवन यापन करते है गावों मै सप्त्तह मै एक बार मुर्गा बाजार लगता है मुर्गा बाजार मुर्गा लड़ाई (cock fight ) के साथ साथ व्यापार करने का एक जरिया है   

मुर्गा लड़ाई आदिवासियों के जिंदगी का हिस्सा कैसे बना । How cock fighting became a part of tribal life

        इस बात में कोई दो राय नहीं है पौराणिक गथाओ में पशु पक्षियों को पालना और उसे अपने काम के लिए इस्तेमाल करना आम बात रही है . और आदिवासी जल, जंगल , जमीन से जुड़े हुए है जिसमे पशु पक्षियों के पंखो से सजना हो या अपने गुड़ी को जानवरों के सिंग से सजाना इनके सभ्यताओ में नजर आता है .

ये कहा जाना की मुर्गा लड़ाई (cock fight ) को आदिवासियों के संस्कृति का हिस्सा रहा है ये गलत नहीं होगा .आदिवासी समाज मै मुर्गा लड़ाई (cock fight ) कई पीड़ियों से आम जिंदगी का मनोरंजन का हिस्सा बना हुआ है स्थानीय  भाषा मै मुर्गा लढाई को कुकड़ा गाली कहते है.

cock fight
cock fight । PC Renuka Singh

मुर्गा लड़ाई (cock fight ) पहले पूरे भारत में   मनोरंजन के लिए खेला जाता था लेकिन धीरे धीरे मनोरंजन के साधन मै बदलाव आ गया  अब मुर्गा लड़ाई बस्तर में एक सट्टे बाजार की तरह देखने को मिलता है. मुर्गा लड़ाई बस्तर संभाग के सभी क्षेत्र गाँव हाट बाजार मै खेले जाते है. यह कह सकते है की मुर्गा लड़ाई बस्तर के आदिवासियों की संस्कृति का एक अहम् हिस्सा है .

काती से क्या समझते है आप ? । What do you understand by Kati?

  चाकू मुर्गा लड़ाई (cock fight ) से पहले मुर्गा के पंजे मै बांधा जाता है, जिसे काती कहते है  हुआ नुकीली एवं तेज धार होती है मुर्गो के पंजो मै काती को बांधने के बाद ही मुर्गो को लड़ाया जाता है. मुर्गा अपने पंजे में बंधे हुए चाकू से एक दूसरे के ऊपर वार करते है. कभी कभी इसकी वजह से लहूलुहान होते है .चाकू छोटी होती है जिसे मुर्गे के पंजो पर आसानी से बांधा जाता है.

cock fight। PC Manoj Sharma
cock fight। PC Manoj Sharma

काती मुर्गे के दाये पैर मै बांधा जाता है ऐसा नही है की काती कोई भी व्यक्ति बांध सकता है काती बांदने का भी कला होती है. यह काती समानीय घोड़े की ना ल या लोहे से बनाई जाती है . इन मुर्गो को इनके रंगो के आधार पर काबरी चीतरी लाली आदि नामो से बुलाया जाता है मुर्गा लढाई के शोकीन ग्रामीण बड़े शोक से मुर्गा पालते है .

मुर्गा लड़ाई में काती का इस्तेमाल क्यों ? । Why is kati used in cock fight?

मुर्गा लड़ाई (cock fight ) में अहम रोल कतकार यानी मुर्गे के पैर में काती बांधने वालों का होता है। दो मुर्गों की लड़ाई में दो कतकार होते हैं। वे अलग-अलग मुर्गों को काती बांधते हैं। कतकार के पास खुद के काती होते हैं। 

स्थानीय साप्ताहिक हाट में साल 2014 से काती की डिजाइन बदल गई है। पहले चाकू सीधा होता था लेकिन दो साल पहले इसे कुछ टेढ़ा कर दिया गया। टेढ़ी काती की मार इतनी घातक होती है कि जीतने वाले मुर्गे का लंबे समय तक इलाज कराना पड़ता है। कभी-कभी जीतने वाले मुर्गे की भी मौत हो जाती है।

दंतेवाड़ा जिले में ‘बाकल काती’ का इस्तेमाल होता है। इसमें काती पैर के ऊपर बांधी जाती है। इससे मुर्गा लड़ाई के दौरान लड़ने के लिए ज्यादा फ्री रहता है। बस्तर जिले में भी ये काती इस्तेमाल में लाई जाती है। यहां सीधी काती का इस्तेमाल होता है यानी पैर में इसे सीधा बांधा जाता है। एक काती की कीमत 30 से 500 रुपए तक होती है।जीतने पर कतकार को पैसा दिया जाता है .

मुर्गा लढाई का मैदान  । Battle field

                 मुर्गा लड़ाई का मैदान ज्यादातर रेतीले स्थान पर बनाया जाता है जो सामान्य रूप से न तो ज्यादा कठोर हो और ना ही ज्यादा नर्म यु कहिये हो इस मैदान में धुल उड़तीहुई मिलती है .गोलाकार मैदान तार से घिरे होते है इऔर चारो ओर दर्शक और सट्टे लगाने और दाव खेलने वालो की भीड़ लगी होती है .

cock fight। PC Manoj Sharma
cock fight। PC Manoj Sharma

  मुर्गा लढाई का मैदान को गाली कहते है इस मैदान के अंदर उतारे जाते है लड़ाकू मुर्गे . मुर्गा लड़ाई (cock fight ) के मैदान में कई किस्म के लोग रहते है जिनमे जो टिकट लेकर मुर्गे पर दांव लगाते है ,कुछ दर्शक होते है जो बाहर से ही दांव लगते है ओर इस खेल का आनंद लेते है.   दांव लगाने के लिए कही नियम भी होते है इसमे 10 रुपए से लेकर 50000 तक का दांव लगते है  इस मैदान में मुर्गा लड़ाई को देखने के लिए 100 रुपए का एंट्री फीस (टिकट ) देना पड़ता है.

मुर्गा लढाई के नियम  । Cock fight rules
  •  मुर्गा लढाई से पहले दो अंजान मुर्गो को आपस मै ट्रायल के रूप मै मैदान के बाहर लढ़ाया जाता है
  • उसके बाद गाली यानि मैदान मै उतारा जाता है जो मुर्गा ज्यादा हमला कर के दूसरे मुर्गे को घायल करता है वह मुर्गा जीत जाता है.
  • कही बार इस मुर्गा लढाई मै मुर्गा की जान भी चली जाती है कभी कभी तो मुर्गा मैदान छोड़ कर भाग जाता है.
  • मुर्गा लढाई मै मान सम्मान तथा परम्परा पर विशेष ध्यान दिया जाता है हारे वाले मुर्गे का कलगी या पंख को तोड़कर जीते हुये मुर्गे के मालिक को सम्मान किया जाता है. ताकि भाई चारा बने रहे .

        मुर्गा लड़ाई (cock fight ) बस्तारवासियों के लोकप्रिय खेलो में से एक है . गावों ओर  कस्बो मै मुर्गा लढाई मनोरंजन का भी लम्हिबे समय से आम जिंदगी का हिस्सा रहा है . बस्तर मै मुर्गा लड़ाई के लिए कई क्षेत्र में मुर्गा बाजार लगाया जाता है कहा जाता है की मुर्गा लढाई बस्तर केआवासियों का सबसे पसंदिता खेल था .

मनोरंजन का साधन  । Entertainment tool

हर बाजार के पीछे मुर्गा लड़ाई (cock fight ) का अखाड़ा रहता है . आदिवासी माड़िया देसी दारू,मंद सल्पी ओर अंग्रेजी शराब के नशे मै टुन्न होकर एक दूसरे के मुर्गे की जान लेने को आंतुर मुर्गे पर दाव लगाते रहते है. वैसे  मुर्गा लड़ाई का ये खेल सदियो पुराना बताया जाता है.

cock fight। PC Manoj Sharma
cock fight। PC Manoj Sharma

हाट का माहौल बिलकुल एक मेले जैसा होता है जहा आसपास के सभी गाँव वाले अपने जरुरत का सामान लेने पहुचते है . ऐसे में ज्यादातर यहाँ लोगो के हाथ में मुर्गा होना सामान्य है इसलिए आदिवासियो के लिए मुर्गा लढाई  मनोरंजन का एक भी साधन है .

ये खेल नैतिक है या अनैतिक । Is this game moral or immoral?

पेटा (पीपल फॉर एथिकल ट्रीटमेंट फॉर एनिमल्स) जैसे पशु अधिकार कार्यकर्ताओं और संगठनों का तर्क है कि प्रदर्शन के खेल में अक्सर जानवरों के अधिकारों का उल्लंघन होता है। जानवरों को पीटा जाता है, बधिया किया जाता है, चिढ़ाया जाता है और भयभीत किया जाता है और यह सांस्कृतिक गौरव का विषय नहीं होना चाहिए।

जानवरों के प्रति क्रूरता की रोकथाम अधिनियम की आवश्यकता है कि जानवरों को अनावश्यक दर्द और पीड़ा को रोकने के लिए उपाय किए जाने चाहिए और इसलिए ये खेल आयोजन भूमि के कानून का उल्लंघन करते हैं।

मनोरंजन के लिए जानवरों का उपयोग हमारी प्रमुख स्थिति का दुरुपयोग है और जानवरों और प्रकृति के प्रति समाज को क्रूर बनाता है। इसके विपरीत, मनुष्यों की जानवरों की रक्षा करने की जिम्मेदारी होनी चाहिए।वर्षों से, जानवरों के खेल के व्यावसायीकरण के साथ, यातना, गोइंग आदि की प्रथाओं ने खेलों में अपना रास्ता खोज लिया है। इस प्रकार, अनुभव जानवर के लिए दर्दनाक हो जाता है।

पशु खेल प्राचीन काल से सभ्यता का हिस्सा रहे हैं और अगर क्रूरता से जुड़े नहीं हैं तो स्वाभाविक रूप से अनैतिक या अनैतिक नहीं हैं।इसके अलावा लंबे समय से अभ्यास किया जा रहा है, खेल संस्कृतियों और परंपराओं में निहित हो गए हैं।इस प्रकार एक पूर्ण प्रतिबंध न तो व्यवहार्य है और न ही उचित है क्योंकि इससे तमिलनाडु में जल्लीकट्टू प्रतिबंध के मामले में विरोध प्रदर्शन तेज हो सकता है।

जानवरों के खेल और उनसे जुड़े पुरस्कार मालिकों को मवेशियों को पालने और प्रशिक्षित करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। इस तरह स्वदेशी जीन पूल को संरक्षित किया जा रहा है।खेलों में इस्तेमाल होने वाले जानवरों को बड़े प्यार और स्नेह से पाला और प्रशिक्षित किया जाता है। इन घटनाओं को उन व्यक्तियों द्वारा अपने अधिकारों के उल्लंघन के रूप में देखा जाता है जो संबंधित संस्कृतियों के लिए विदेशी हैं।

जानवरों के खेल पर बहस में एक तरफ जानवरों के अधिकारों और दूसरी तरफ सांस्कृतिक पहचान के सम्मान के बीच संघर्ष शामिल है। परिणामस्वरूप, कानूनी प्रतिबंध लागू करने में व्यावहारिक कठिनाइयाँ हो सकती हैं। यह केवल धीरे-धीरे ही है कि समुदायों को पशु अधिकारों की अवधारणा और उनके नैतिक उपचार के प्रति संवेदनशील बनाया जा सकता है।

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