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bhojali।भोजली : प्रकृति संरक्षण का पर्व

पीयूष कुमार
Piyush Kumar
The author is Assistant Professor of Hindi in the Department of Higher Education, Government of Chhattisgarh
मित्रता और प्रकृति के प्रति समर्पण का मिसाल है भोजली (bhojali)

लोकसंस्कृति के मूल में प्रकृति के प्रति कृतज्ञता और उसके मानवीय एकीकरण की भावना की जलधारसंचरित रहती है। छत्तीसगढ़ में इसी तरह का एक पर्व है (bhojali) भोजली। इसका अर्थ है भूमि में जल हो। इसके लिये महिलायें भोजली देवी अर्थात प्रकृति की पूजा करती हैं। भोजली गेंहू के पौधे हैं जो श्रावण शुक्ल नवमी में बोए जाते है और भादो की प्रथमा को रक्षाबंधन के बाद विसर्जित किए जाते हैं।

भोजली (bhojali) विसर्जन का यह उत्सव दर्शनीय होता है। जंवारा बोहे लोग जिसमें कन्याएं, महिलाएँ ज्यादा होती हैं, तालाब की ओर गीत गाते चली जाती हैं – देवी गंगा, देवी गंगा… लहर तोर अंगा…सावन आने के साथ ही लडकियां एवं नवविवाहिताएं अच्छी बारिश एवं भरपूर फसल भंडार की कामना करते हुए प्रतीकात्मक रूप में भोजली का आयोजन करती हैं ।

भोजली(bhojali) एक टोकरी में भरे मिट्टी में धान, गेहूँ, जौ के दानों को बो कर तैयार किया जाता है । उसे घर के छायादार जगह में स्थापित किया जाता है । उस में हल्दी पानी डाला जाता है। गेहूँ के दाने धीरे धीरे पौधे बढ़ते हैं, महिलायें उसकी पूजा करती हैं एवं भोजली दाई के सम्मान में भोजली सेवा गीत गाये जाते हैं । सामूहिक स्वर में गाये जाने वाले भोजली गीत छत्तीसगढ़ की पहचान हैं।

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bhojali
bhojali।भोजली
महिलायें भोजली दाई (bhojali) में पवित्र जल छिड़कते गाती हैं –

देवी गंगा देवी गंगा लहर तोर अंगा,
हो लहर तोर अंगा…
हमर भोजलीन दाई के भीजे आठो अंगा
आ हो देवी गंगा… आ हो देवी गंगा..
आई गयी पूरा बोहाई गयी मलगी
बोहाई गयी मलगी
हमरो भोजली दाई के सोने सोन के कलगी
आ हो देवी गंगा… आ हो देवी गंगा..
जल बिन मछरी पवन बिन धाने
पवन बिना धाने
सेवा बिन भोजली के तरसे पराने
आ हो देवी गंगा… आ हो देवी गंगा..

लिपी डारेन पोती डारेन छोड़ी डारेन कोनहा
छोड़ी डारेन कोनहा
सबो पहिरैं लाली चुनरी भोजली पहिरैं सोनहा
आ हो देवी गंगा… आ हो देवी गंगा..
आई गई पूरा बोहाई गयी झिटका
बोहाई गयी झिटका
हमारी भोजलीन दाई ला चंदन के छिटका
आ हो देवी गंगा… आ हो देवी गंगा..
कुटी डारेन धाने पछिन डारेन भूसा
पछिन डारेन भूसा
लईके लईका हवन भोजली झनी करिहौ गुस्सा
आ हो देवी गंगा… आ हो देवी गंगा..
कनिहा म कमर पट्टा माथे उरमाले
माथे उरमाले
जोड़ा नरियर धर के भोजली जाबो कुदुरमाले
आ हो देवी गंगा… आ हो देवी गंगा..
नानकुन टेपरी म बोएंन जीरा धाने
बोएंन जीरा धाने
खड़े रईहा भोजली खवाबो बीरा पाने
आ हो देवी गंगा… आ हो देवी गंगा..
गंगा गोसाई गजब झनी करिहा
गजब झनी करिहा
भईया अउ भतीजा ल अमर देके जईहा
आ हो देवी गंगा… आ हो देवी गंगा..
सोने के करसा गंगा जल पानी
गंगा जल पानी
हमर भोजलिन दाई के पईंया पखारी
आ हो देवी गंगा… आ हो देवी गंगा..

सोने के दियना कपूर के बाती
कपूर के बाती
हमर भोजलिन दाई के आरती उतारी
आ हो देवी गंगा… आ हो देवी गंगा..
आठे के चाऊंर नवमी बोवाएंन हो नवमी बोवाएंन
दसमी के भोजली जराई कर होईन
आ हो देवी गंगा… आ हो देवी गंगा..
एकादस के भोजली दु तीन पान होईन
दु तीन पान होईन
दुवादस के भोजली मोतिन पानी चढ़िन
आ हो देवी गंगा… आ हो देवी गंगा..
तेरस के भोजली लहसी बिहस जाईन
लहसी बिहस जाईन
चउदस के भोजली पूजा पाहुर पाईन
आ हो देवी गंगा… आ हो देवी गंगा..
चउदस के भोजली पूजा पाहुर पाईन
पूजा पाहुर पाईन
पुन्नी के भोजली ठंढा ए जाईन
आ हो देवी गंगा… आ हो देवी गंगा..
दूध मांगेन, पूत मांगेन, मांगेन आसीसे
हो मांगेन आसीसे
जुग जुग जियो भोजली लाख बरिसे
आ हो देवी गंगा… आ हो देवी गंगा..
टुटहा हँसिया के जरहा हे बेंटे हो
जरहा हे बेंटे
जियत जागत रबो भोजली होई जाबो भेंटे
आ हो देवी गंगा… आ हो देवी गंगा..

छत्तीसगढ़ में भोजली (bhojali) मुख्य पर्व के रूप में लोकप्रिय है पर छत्तीसगढ़ के अलावा यह उत्तर भारत के कई हिस्सों में में भिन्न नामों से मनाया जाता रहा है। भोजली को ब्रज और उसके आसपास ‘भुजरियाँ’ और बघेलखण्ड,बुन्देलखण्ड और मालवा के पूर्वी हिस्से में यह ‘कजलियाँ’ कहलाता है।

इस दिन लड़कियों द्वारा कजलियां (जंवारा) के कोमल पत्ते तोड़कर घर के पुरूषों के कानों के ऊपर लगाया जाता है इसके बदले पुरूषों द्वारा शगुन के तौर पर लड़कियों को रूपये भी दिये जाते हैं। इस पर्व में कजलियाँ लगाकर लोग कामना करते है कि सब लोग धन धान्य से भरपूर रहें। यह पर्व सुख समृद्धि का प्रतीक माना जाता है। बघेलखण्ड में कजलियाँ विसर्जन के समय गीत गाया जाता है।

जिसका एक अंश है –

हरे रामा
बेला फुलैं आधी रात
चमेली भिनसारे रे हारे रे हारे
हरे रामा
भइया लगवैं बेला बाग
तोड़न नहीं जानै रे हारे रे हारे …

बुंदेलखंड में भुजरियां (भोजली) की ऐतिहासिकता 12 वीं सदी से प्राप्त होती है। आल्हा गाथा के अनुसार राजा परमाल की लड़की चन्द्रावली से पृथ्वीराज चौहान अपने पुत्र ताहर से उसका विवाह करना चाहता था।वह चन्द्रावली का अपहरण कर लेता है पर ऊदल, इन्दल और लाखन चन्द्रावली को बचा लेते हैं और उसकी भुजरियाँ मनाने की इच्छा पूरी करते हैं।

उत्तराखण्ड के कुमायूँ क्षेत्र में सावन की संक्रांति के दिन इसी तरह का हरेला पर्व मनाया जाता है। उसमें भी इसी तरह सात या नौ प्रकार के अनाजों के बीजो को चार पांच दिन दिन पहले बांस की टोकरियों में बोते हैं।नौ दिन बाद जब यह बीज कोमल पत्तियों के रूप में हरेला के दिन तक बढ़ जाते हैं तो इन्हें पूजा में चढ़ा के लोग कान में रखते है। इसके अलावा वे इसे अपने मुख्य द्वार पर लगाते है। महिलाये अपने जूड़े में भी पिरोती हैं।लोग खेतों मे अच्छे पैदावार की कामना करते हैं।

bhojali
bhojali

हरेला त्यौहार सावन में ही ख़त्म हो जाता है।छत्तीसगढ़ में भोजली पर्व की ख़ास बात है, मित्रता की स्थापना। इस पारंपरिक लोकपर्व भोजली में विसर्जन के बाद बचाए गए पौधों को एक-दूसरे को देकर मितान बनाने की परंपरा का भी निर्वहन किया जाता है। एक दूसरे के कान में कलगी (भोजली की पत्तियां) लगाकर दोस्ती को अटूट बनाने की कसम ली जाती है।

यह मित्रता जीवन भर निभाने की बाध्यता है। एक तरह से इसका महत्व फ्रेंडशिप डे की तरह है। इस तरह से बदे मितान का सम्बोधन सीताराम भोजली ! कहकर किया जाता है। भोजली (bhojali) सिर्फ आज का अवसर नहीं है। यह जंवारा के रूप में अन्य अवसरों पर भी प्रयुक्त होता है। यह तीजा, जन्माष्टमी और नवरात्र के लिए ऐसी जंवारा के रूप में घर-घर उगाई जाती है। अब व्यवसायिकता के चलते शहरों में रेडीमेड भोजली उपलब्ध हो रही है।

भोजली पर रमेश कुमार सिंह चौहान कृत एक भोजली (bhojali) गीत है –

रिमझिम रिमझिम सावन के फुहारे।
चंदन छिटा देवंव दाई जम्मो अंग तुहारे।।
तरिया भरे पानी धनहा बाढ़े धाने।
जल्दी जल्दी सिरजव दाई राखव हमरे माने।।
नान्हे नान्हे लइका करत हन तोर सेवा।
तोरे संग मा दाई आय हे भोले देवा।।
फूल चढ़े पान चढ़े चढ़े नरियर भेला।
गोहरावत हन दाई मेटव हमर झमेला।।

लोक उत्सवों की विशेषताएं हैं उनका प्राकृतिक होना। भोजली पर्व भी पर्यावरण संरक्षण का मूल संदेश देती हैं। हम सभी इन मूल संदेशों को उत्सव के साथ साथ याद रखें और व्यवहार करें ताकि प्रकृति बची रहे।भोजली की सभी को हरियर शुभकामनाएं।

bhojali
bhojali।फ़ोटो – प्राण चड्ढा
माटी तिहार

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