शिवा यादव- स्थानीय पत्रकार
जीत की खुशी में 12 साल में होता मेला
मनोज देव ने बताया कि 1410 के दशक में उड़ीसा जयपुर के जमीनदार विक्रम देव और सुकमा के जमीनदार रंगाराजा शिवचंद्र देव के मध्य महायुद्ध हुआ था। इस युद्ध में जान माल की हानि हुई थी, उस वक्त सुकमा जमीनदार को केरलापाल और कोर्रा परगना के जनता ने रसद व आर्थिक रूप से सहयोग किया। क्योंकि दोनों जमीदारों के बीच करीब 11 सालों तक युद्ध चलता रहा और इस लंबी लड़ाई के बाद सुकमा के जमीदार ने इस जीत हुई। सुकमा जमीनदार को जीत मिलने की खुशी में मेले का आयोजन 12 वर्षों में एक बार आयोजित किया जाता है। उन्होंने बताया है कि इस मेले में आदिवासी संस्कृति को देखने का यह सुनहरा अवसर मिलता है क्योंकि देश के विभिन्न राज्यों में आदिवासी संस्कृति जहां लुप्त हो चुकी है वहीं हमारे यहां आज भी कायम है। जिसमें सभी जाति संप्रदाय के लोग मिलकर इस मेले को संपन्न करते हैं।
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देवी देवताओं का लगता है ताता
वही इस मेले में मुख्य रूप से देवता कलमराज, बालराज, पोतराज सुकमा जमीनदार के प्रमुख देवता थे। तीनों देवता भाइयों का निवास वर्तमान में पड़ोसी राज्य उड़ीसा और आंध्र प्रदेश की सीमा पर स्थित मानेमकोंडा के जंगल में स्थित पहाड़ के पास स्थित झील के बीच है, जो मलकानगिरी से करीब 30 किलोमीटर दूर है। बताया जाता है कि माता चिटमिट्टीन अम्मा देवी रामाराम, मुसरिया माता छिंदगढ़, एवं मलकानगिरी की मावली माता यह तीनों देवी बहने हैं, इनका मिलन सुकमा के ऐतिहासिक मेले में होगा। इसके अलावा अन्य देवी देवता शामिल होंगे।
मेले समिति के सदस्य व जानकारों का कहना है कि 1410 के दशक में मलकानगिरी क्षेत्र जो उड़ीसा प्रांत से है वो पहले सुकमा जमींदारी के हिस्से में था। वहां के प्रमुख देवता कमन राज, बालराज, पोतराज जो कि सुकमा जमीदारों के प्रमुख देवता थे। जैपुर मलकानरी सीमा से लगा होने के कारण और जमीन बहुत ही उपजाउ साथ ही खनिज संपदा से परिपूर्ण था। जैपुर के राजा विक्रम देव ने सोचा कि मलकानगिरी से क्यो न सुकमा जमीदारों को हटाया जाऐ। तथा उन्हे युद्ध लिए उकसाया जाऐं। क्योंकि उस वक्त सुकमा जमींदार बहुत ही शांतिप्रिय थे लेकिन जैपुर के महाराजा ने बार-बार युद्ध कर परेशान करते रहे। फिर अचानक कुछ वर्षो बाद जैपुर राजा ने गुपचुप तरीके से युद्ध की तैयारी कर अचानक मलकानगिरी पर धावा बोल दिया।
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परगना के लोग युद्ध करना नहीं चाहते थे। परगले के लोगो ने तीनो देवता बालराज, पोतराज व कमनराज को वही छोड़ मालवी माता को लेकर सुकमा की और लौट रहे थे। उसी समय जैपुर राजा ने चालानगुड़ा जो सुकमा और मलकानगिरी के बीच एक आदिवासी गांव है। वहां फिर से धावा बोल दिया। तो मालवी माता को भी साथ नहीं ला पाए। वही छोड़ कर सुकमा भाग आए। वहा आज भी मालवी माता का मंदिर स्थित है। जहां माता का मुख सुकमा की और है। इस लड़ाई में जनमाल व आर्थिक हानि हुई। लेकिन उस वक्त सुकमा जमींदारों का पूर्ण रूप से सहयोग करने में केरलापाल एवं कोर्रा पगरना की जनता ने आर्थिक एवं समाजिक रूप से भरपूर मदद की। इस महायुद्ध में महा सहयोग के कारण याददास्त के रूप में प्रत्येक 12 वर्षो में यह पवित्र व विराट आदिवासी मेला पर्व के रूप में मनाते है।
तीन बहनों का होता है मिलन
इस ऐतिहासिक मेले में तीन देवीओं का मिलन होता है। बताया जाता है कि तीन देवीओं का मिलन होता है। जिसमें माता चिटमिटन रामारामिन, माता मुसरिया छिन्दगढ़ व मलकानगिरी माता मालवी ये तीनों देवी बहने थी। और इनका मिलन सुकमा के इतिहासिक मेले में होता है।
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