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World’s Indigenous Day: विश्व मूलनिवासी दिवस की जरूरत क्यों है ?

पीयूष कुमार
Piyush Kumar
The author is Assistant Professor of Hindi in the Department of Higher Education, Government of Chhattisgarh
विश्व आदिवासी दिवस /World’s Indigenous Day

विश्व के इंडिजिनस पीपुल के मानवाधिकारों को लागू करने और उनके संरक्षण के लिए 1982 में संयुक्त राष्ट्र संघ (UNO) ने एक कार्यदल (UNWGEP) के उपआयोग का गठन हुआ जिसकी पहली बैठक 9 अगस्त 1982 को हुई थी और यूएनओ ने अपने गठन के 50वें वर्ष मे यह महसूस किया कि 21 वीं सदी में भी विश्व के विभिन्न देशों में निवासरत आदिवासी समाज अपनी उपेक्षा, गरीबी, शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधा का अभाव,बेरोजगारी एवं बन्धुआ व बाल मजदूरी जैसी समस्याओ से ग्रसित है।

इसलिए 1993 में UNWGEP कार्यदल के 11 वें अधिवेशन में आदिवासी अधिकार घोषणा प्रारुप को मान्यता मिलने पर 1993 को आदिवासी वर्ष और  9 अगस्त को आदिवासी दिवस घोषित किया गया। मूलनिवासियों को अधिकार दिलाने और उनकी समस्यायों के निराकरण, भाषा – संस्कृति, इतिहास के संरक्षण के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा द्वारा 9 अगस्त 1994 में जेनेवा शहर में विश्व के आदिवासी प्रतिनिधियों का विशाल एवं विश्व का प्रथम अन्तर्राष्ट्रीय आदिवासी दिवस सम्मेलन आयोजित किया। आदिवासियो की संस्कृति और भाषा के मूलभूत अधिकारों को सभी ने एक मत से स्वीकार किया और विश्व राष्ट्र समूह ने  “हम आपके साथ है ” यह वचन आदिवासियों को दिया।

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मूलनिवासी दिवस से आशय और जरूरत इसलिए है कि कोई समुदाय लंबे समय से अपनी एक विशेष सांस्कृतिक, प्राकृतिक और सामाजिक परिवेश में रह रहा हो, उसकी इन विशेषताओं का संरक्षण हो सके। चूंकि इस अर्थ में अपनी सतत जीवंतता, स्थायित्व और आदिम युग का प्राण आदिवासी समुदायों में ही शेष है इसलिए मूलनिवासी दिवस को आदिवासी दिवस (World’s Indigenous Day) कहा जाता है। आदिवासियों की यह निजता और विशिष्टता लगातार खतरे में है।

इतिहास गवाह है साम्राज्यवाद ने धर्म को टूल बनाकर अपनी संस्कृति आदिम समूहों में उन्हें असभ्य बताकर थोपी और उनके क्षेत्र में हर तरह का अतिक्रमण किया। इसे समझने के लिए उपनिवेश विरोधी कीनियाई नेता जोमो केन्याटा का उध्दरण जिसे प्रसिद्ध अफ्रीकी समाजसुधारक और नोबेल विजेता विचारक डेसमंड टूटू ने भी कोट किया है, उल्लेखनीय है – “जब मिशनरी अफ्रीका आए तो उनके पास बाइबिल थी और हमारे पास जमीन थी।  उन्होंने कहा ‘आइए प्रार्थना करें।’  हमने आंखें बंद कर लीं।  जब हमने उन्हें खोला तो हमारे पास बाइबल थी और उनके पास ज़मीन थी।” यह कथन मूलनिवासियों की दशा – दुर्दशा का सार है। हालांकि बदलते वैश्विक परिदृश्य में और भी कारक हैं जो मूलनिवासियों की समस्याओं का कारण हैं।

भारत के परिप्रेक्ष्य में भी हम साफ तौर पर देखते हैं कि विभिन्न कारणों से विस्थापन का दर्द आदिवासियों को अधिक झेलना पड़ा है। कुछ साल पहले की ‘द हाई लेवल कमिटी ऑन सोश्यो इकॉनॉमिक, हैल्थ एंड एजुकेशनल स्टेटस् ऑफ ट्राइब्ल कम्युनिटीज ऑफ इंडिया’ की रिपोर्ट में कहा गया है कि तकरीबन 25 प्रतिशत आदिवासी अपने जीवन में कम से कम एक बार विकास परियोजनाओं के कारण विस्थापन के शिकार होते हैं।

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आदिवासी आबादी के पुनर्वास से संबंधित सरकार द्वारा नियुक्त एक विशेषज्ञ समिति ने कहा था कि विकास परियोजनाओं के कारण विस्थापित होने वाले लोगों में जनजातीय समुदाय के लोगों की संख्या 47 प्रतिशत है। इसमें सबसे अधिक प्रभाव बांधों के निर्माण और खनिज संसाधनों के दोहन से पड़ता रहा है। ग्रामीण विकास मंत्रालय के अंतर्गत कार्यरत भू-संसाधन विभाग की वार्षिक रिपोर्ट (2007-08) के तथ्यों के आधार पर कहा गया है कि आदिवासियों के भूमि-अधिग्रहण से संबंधित कुल 5.06 लाख मामले अदालतों में दायर हुए हैं जो कि 9.02 लाख हैक्टेयर जमीन के हैं।

दायर मामलों में कुल 2.25 लाख मामलों में फैसला आदिवासी आबादी के पक्ष में हुआ है जो कि 5 लाख एकड़ जमीन से संबंधित है। अदालत ने विभिन्न आधारों पर कुल 1.99 लाख मामलों को खारिज किया है। ये मामले 4.11 लाख एकड़ जमीन से संबंधित हैं। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि इतनी बड़ी संख्या में मामलों का निरस्त होना चिन्ताजनक है। जाहिर है, भूमि अधिग्रहण और पुनर्वास सम्बन्धी कारण मूलनिवासियों की समस्याओं के बड़े कारण हैं।

छत्तीसगढ़ में देखें तो एक गंभीर मामला यह दिख रहा कि आदिवासियों की आबादी पहले से कम हो गयी है। 10 फरवरी 2020 के ‘पत्रिका’ (रायपुर संस्करण) अखबार के अनुसार राज्य शासन की आदिम जाति एवं अनुसूचित जाति विकास विभाग ने आदिवासियों की घटती आबादी पर बस्तर विश्वविद्यालय को शोध के लिए कहा था। विश्वविद्यालय के मानव विज्ञान एवं जनजातीय अध्ययन विभाग ने दंतेवाड़ा, बीजापुर, सुकमा, नारायणपुर, कांकेर, जशपुर व कोरिया जिला में लगभग सात हजार सैंपल का सर्वे लेकर सरकार की चिंता को सही पाया है।

राज्य के अनुसूचित इलाकों में जन्म व मृत्युदर दोनों की बढ़ोतरी से इनकी जनसंख्या घटती जा रही है। मृत्युदर में बढ़ोतरी के लिए कुपोषण, बीमारियां, साफ पानी की कमी सबसे बड़े कारक हैं। आदिवासी जनसंख्या में वृद्धिदर में सर्वाधिक कमी नारायणपुर, सुकमा व कोरिया में पाया गया है, जबकि प्राकृतिक वृद्धि दर (3.4) नारायणपुर (1.5) व जशपुर में सर्वाधिक कम आंकी गई है जो कि जन्मदर की कमी की ओर इशारा करते हैं। यही हाल मातृ मृत्युदर में है जिसमें सुकमा, नारायणपुर व बीजापुर आगे हैं। नारायणपुर में मृत शिशुओं का जन्म भी चिंता का विषय बन गया है। आदिवासियों पर माओवादी हिंसा का भी प्रभाव पड़ा है जिसके चलते कुछ आदिवासी विस्थापित हैं या पलायन कर गए हैं।

मूलनिवासियों की इस दुर्दशा के पीछे अनियन्त्रिक भौतिक विकास की पूंजीवादी लालसा है। संसाधनों के इस दोहन में जो दिखता है, वह तो है ही, जो सांस्कृतिक क्षति भी अधिक है। इतिहास गवाह है कि सारी दुनिया में भिन्न और ताकतवर संस्कृति ने अपनी विस्तारवादी नीति के चलते मूल संस्कृति का अपहरण कर लिया या अपनी छाया उसपर डाल दी। इस विनाश में बढ़ते पूंजीवाद का भी बड़ा योगदान है। इसके कारण अब मूलनिवासियों की  भाषा, संस्कार और जीवन में उनकी अपनी छाप कम ही रह गयी है।

इन बुरी स्थितियों से उबरने अपनी संस्कृति को बचाने मूलनिवासियों को स्वयं आगे आना होगाअपनी भाषा और संस्कारों को प्रचलित करके। सोशल मीडिया के कारण अपने अधिकारों को लेकर चेतना आदिवासियों में जरूर आई है पर लगता है, सेलिब्रेशन से अधिक उसे जीवन में उतारने की ज्यादा जरूरत है। नागरिक अधिकारों के लिए संवैधानिक समझ को विकसित करना जहां महत्वपूर्ण है, वहीं सांस्कृतिक संरक्षण के लिए अपनी भाषा और संस्कृति को सीखना और व्यवहार में लाना होगा। सबसे खास बात इसे आदिवासियों को स्वयं करना होगा।

आज मूलनिवासियों की सांस्कृतिक और सामाजिक परिस्थितियों पर नजर डालने से यह समझना आसान है कि हम कितना बड़ा नुकसान कर रहे हैं अपने अतीत का, अपने जंगलों का, अपनी आदिम संस्कृति और परंपराओं का। अब जबकि भौतिक विकास के दुष्परिणाम हम देख रहे हैं, यह सब रोकना ही होगा। यह समझना ही होगा कि जितना है, बहुत है। वर्तमान सामाजिक मनोविज्ञान को देखकर जांजगीर के कवि नरेंद्र श्रीवास्तव की एक कविता की यह पंक्ति याद आती हैं – “नहीं सुहाती नए जमाने की तरक्की/ अब भाती है सिंधु घाटी की सभ्यता।”  सचमुच, हमें वक्त आ गया है कि हम अपनी जड़ों की ओर, प्रकृति की ओर लौटें। मूलनिवासी दिवस पर सभी को बहुत बधाई ! जोहार !!

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